जगदीप धनखड़ का इस्तीफा या सत्ता से मतभेद? एनजेएसी विवाद और विपक्ष से नज़दीकी पर बढ़ा सियासी बवाल

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नई दिल्ली,उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के अप्रत्याशित इस्तीफे ने न केवल देश की सियासत को चौंकाया है बल्कि संसद और सत्ता के गलियारों में कई नई अटकलों को जन्म दे दिया है। सोमवार को शाम होते-होते जब उपराष्ट्रपति पद से उनके इस्तीफे की पुष्टि हुई, तो तर्क दिया गया कि उन्होंने यह फैसला ‘स्वास्थ्य कारणों’ के चलते लिया। मगर राजनीतिक हलकों में यह कथन अब शक की निगाहों से देखा जा रहा है, और असली वजहें धीरे-धीरे उजागर हो रही हैं।

संसद के गलियारों में चर्चा जोरों पर है कि हाल के हफ्तों में धनखड़ की विपक्षी नेताओं से बढ़ती नज़दीकियों ने भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को असहज कर दिया था। जानकारी के मुताबिक, उन्होंने पिछले सप्ताह कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से वीपी एन्क्लेव में मुलाकात की थी। इसके अलावा रविवार को वे दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविंद केजरीवाल से भी मिले। इन मुलाकातों ने केंद्र सरकार के कान खड़े कर दिए थे, क्योंकि संवैधानिक पद पर बैठे एक व्यक्ति का ऐसे समय में विपक्ष के साथ खुला संवाद, भाजपा के लिए चिंता का विषय बन गया।

लेकिन इन मुलाकातों से भी अधिक विवाद का विषय वह मुद्दा बना, जिसे धनखड़ लगातार संसद में उठाते रहे — न्यायपालिका में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) की पुनर्स्थापना। धनखड़, जो पूर्व में उच्च न्यायपालिका में वकालत कर चुके हैं और संविधान की गहराइयों को समझते हैं, लम्बे समय से NJAC जैसे वैधानिक ढांचे की वापसी की वकालत करते रहे हैं। उनका मानना रहा है कि कॉलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता की कमी है और न्यायपालिका की नियुक्तियों को लेकर जनता में सवाल उठते रहे हैं। वे सार्वजनिक मंचों से बार-बार कहते रहे कि अगर न्यायपालिका में लोगों का विश्वास बनाना है, तो उसमें जनता की भागीदारी और उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना आवश्यक है।

लेकिन यही मांग अब भाजपा नेतृत्व के लिए असहज हो गई थी। वर्ष 2014 में मोदी सरकार ने संसद से पारित करवा कर NJAC अधिनियम लागू किया था, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में असंवैधानिक घोषित कर दिया था। तब से भाजपा सरकार ने इस मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से बहुत कुछ नहीं कहा, लेकिन भीतर ही भीतर सरकार और न्यायपालिका के बीच रिश्तों में तल्खी बनी रही। धनखड़ का बार-बार इस मुद्दे को उठाना, और वह भी उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति जैसे संवैधानिक पद पर रहते हुए, सरकार के एजेंडे के विपरीत माना जाने लगा।

बीजेपी के अंदरूनी सूत्रों के अनुसार, सरकार चाहती थी कि उपराष्ट्रपति ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर संयम बरतें और न्यायपालिका से जुड़े विवादों को मंच से बार-बार न उछालें। लेकिन धनखड़ इस मसले पर अडिग रहे। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया था कि वे संवैधानिक पद पर हैं और उनका पहला कर्तव्य संविधान की रक्षा करना है, न कि सरकार की नीतियों के अनुरूप चलना।

इन सब घटनाओं की पृष्ठभूमि में उपराष्ट्रपति का इस्तीफा एक साधारण ‘सेहत का कारण’ नहीं लगता। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने इसे साफ तौर पर ‘सत्ता और संविधान के बीच टकराव’ का परिणाम बताया है। कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कहा, “धनखड़ जी की पीड़ा इस बात से झलकती है कि वे सरकार की एकांगी सोच और मनमानी से सहमत नहीं थे। उनका NJAC पर रुख स्पष्ट था — वे जवाबदेही और पारदर्शिता चाहते थे।”

अब सवाल यह है कि क्या सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग अब भी संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता को स्वीकार करते हैं या वे इसे महज़ एक औपचारिकता मानते हैं? क्या उपराष्ट्रपति का इस्तीफा एक नया ‘संवैधानिक संकट’ है? और क्या यह भाजपा के भीतर उच्च पदों के प्रति आदरभाव की गिरती भावना का संकेत है?

धनखड़ का इस्तीफा सिर्फ एक व्यक्ति का व्यक्तिगत निर्णय नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र में एक गहरी हलचल का संकेत माना जा रहा है। आने वाले दिनों में यह स्पष्ट होगा कि यह केवल शुरुआत थी या सत्ता के भीतर कोई बड़ा भूचाल आने वाला है।

यह इस्तीफा भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका और कार्यपालिका के अधिकारों, पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर जारी संघर्ष का अद्यतन उदाहरण है, जिसकी गूंज समय के साथ और अधिक स्पष्ट होती जाएगी।

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