हिमाचल प्रदेश की राजनीति इस समय एक अनकहे उबाल के दौर से गुजर रही है, और यह उबाल अब कांग्रेस पार्टी की दीवारों को भी दरका रहा है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जिसने दशकों तक देश की बागडोर संभाली, अब अपने ही गढ़ में आंतरिक गुटबाज़ी और संगठनात्मक ढीलेपन का शिकार होती दिख रही है। बिलासपुर में शुरू हुआ ‘संविधान बचाओ’ अभियान, जो संविधान की रक्षा के नाम पर एक व्यापक जनजागरण की कोशिश थी, कांग्रेस के अंदरूनी संघर्ष और नेतृत्वहीनता का खुला प्रदर्शन बन गया।
प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह ने इस अभियान की शुरुआत करते हुए कहा कि संविधान में किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ को कांग्रेस कभी स्वीकार नहीं करेगी। डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा निर्मित भारतीय संविधान ने हर नागरिक को समानता, अधिकार और गरिमा का जो बोध दिया है, वह देश के लोकतांत्रिक ढांचे की रीढ़ है। कांग्रेस का दावा है कि मौजूदा केंद्र सरकार के कुछ फैसले और रुख, संवैधानिक मूल्यों को कमजोर करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। इसी चेतावनी को जनता तक पहुंचाने के लिए यह अभियान शुरू किया गया है।
लेकिन जब मंच से सिद्धांतों की बात हो रही थी, तब मंच के नीचे असल संघर्ष किसी और दिशा में चल रहा था। इंदिरा भवन में आयोजित बैठक में जैसे ही कार्यकर्ताओं और नेताओं को बोलने का मौका मिला, गुटबाज़ी और आपसी प्रतिस्पर्धा खुलकर सामने आ गई। एक ओर पूर्व विधायक बंबर ठाकुर के समर्थक नारेबाज़ी में जुटे थे, वहीं दूसरी ओर पूर्व विधायक तिलकराज शर्मा और जिला परिषद सदस्य गौरव के समर्थक भी शक्ति प्रदर्शन में पीछे नहीं रहे। यह दृश्य किसी चुनावी जनसभा का नहीं, बल्कि उस परिवार का था, जो अपने ही आंगन में एकता की तलाश में भटक रहा है।
बैठक में उस समय और अधिक तनाव बढ़ गया जब अल्पसंख्यक समुदाय के एक कार्यकर्ता ने मंच से बोल रहे पूर्व मीडिया को-ऑर्डिनेटर संदीप सांख्यान की बात पर कड़ी आपत्ति जताई। उनका आरोप था कि पार्टी को अल्पसंख्यकों की याद केवल दिखावे के समय आती है, जबकि वास्तविक प्रतिनिधित्व और निर्णयों में उनकी उपेक्षा होती रही है। यह बहस इतनी तीखी हो गई कि बात हाथापाई तक पहुंचने लगी। वरिष्ठ नेता रामलाल ठाकुर के हस्तक्षेप ने ही इस टकराव को टाला, लेकिन असंतोष की आग बुझी नहीं, बस थोड़ी देर को ठंडी पड़ी।
यह घटनाक्रम केवल एक जिले की आपसी खींचतान नहीं, बल्कि कांग्रेस के उस बड़े संकट का सूचक है, जिसमें संगठनात्मक रिक्तता, संवादहीनता और नेतृत्व के प्रति अविश्वास पनप चुका है। पांच-छह महीने से अधिक समय बीत चुका है, लेकिन हिमाचल प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कई जिलों में अध्यक्ष तक नियुक्त नहीं किए गए हैं। जमीनी कार्यकर्ता हाशिए पर हैं और पार्टी के बड़े मंचों पर उन्हीं नेताओं का बोलबाला है, जिनकी राजनीति शक्ति-प्रदर्शन से संचालित हो रही है।
प्रदेशाध्यक्ष प्रतिभा सिंह ने यह अवश्य कहा कि पार्टी कार्यकर्ताओं की बात सरकार तक पहुंचाई जाएगी और पदों से वंचित कार्यकर्ताओं के लिए प्रयास जारी रहेंगे। लेकिन जिस तरह कार्यकर्ताओं ने परिवार के भीतर संवाद रखने की जगह सार्वजनिक मंचों पर नारेबाजी और कटु वाक्यों का सहारा लिया, वह कांग्रेस के भीतर लंबे समय से जमी असंतोष की उपज है।
यह विडंबना ही है कि ‘संविधान बचाओ’ जैसे गंभीर अभियान की शुरुआत उस माहौल में हुई, जहां पार्टी अपने ही संगठन की रक्षा नहीं कर पा रही है। संवैधानिक मूल्यों की बात तब तक जनमानस में प्रभावी नहीं हो सकती, जब तक पार्टी खुद अपने मूल्यों—अनुशासन, संवाद और नेतृत्व में पारदर्शिता—को मजबूती से न निभाए।
हिमाचल कांग्रेस इस समय एक निर्णायक मोड़ पर है। यदि केंद्रीय नेतृत्व ने शीघ्र और साहसिक हस्तक्षेप नहीं किया, तो यह आंतरिक विघटन पार्टी की जड़ों को और कमजोर कर देगा। कांग्रेस कार्यकर्ता केवल सम्मान और पहचान की तलाश में हैं—यह जरूरत नारेबाजी से नहीं, संगठित नेतृत्व और सुनी जाने वाली आवाज़ों से पूरी की जा सकती है।
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