भारतीय जनता पार्टी अब अपने नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के चयन की ओर निर्णायक कदम बढ़ा चुकी है। पार्टी के संविधान के अनुसार, यह पद लंबे समय से खाली चल रहा है और अब जब राज्य इकाइयों में चुनाव की प्रक्रिया तेज़ हो चुकी है, तो दिल्ली में राष्ट्रीय नेतृत्व को लेकर सरगर्मियां भी ज़ोर पकड़ रही हैं। मौजूदा अध्यक्ष जेपी नड्डा, जो हिमाचल प्रदेश से आते हैं और वर्तमान में केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं, दो बार इस पद पर रह चुके हैं और अब उनके उत्तराधिकारी की तलाश शुरू हो चुकी है। ऐसे में यह बहस फिर से गर्म हो गई है कि आखिर भाजपा का अगला अध्यक्ष कौन होगा—संघ की पसंद या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वफादारों में से कोई?
पार्टी संविधान के अनुसार, भाजपा को राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव से पहले अपने संगठनात्मक ढांचे के अंतर्गत मंडल, ज़िला और राज्य स्तर पर चुनाव पूर्ण करने होते हैं। यही कारण है कि कई महीनों तक यह पद प्रतीक्षारत रहा, क्योंकि पर्याप्त राज्यों में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नहीं चुने गए थे। परंतु अब, जब महाराष्ट्र, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पुडुचेरी और मिज़ोरम सहित 21 राज्यों में प्रदेश अध्यक्ष चुने जा चुके हैं, पार्टी ने उस न्यूनतम आवश्यकता को पूरा कर लिया है, जो राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव के लिए आवश्यक होती है। ऐसे में अब यह स्पष्ट हो गया है कि भाजपा जल्द ही अपने नए राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव कर सकती है।
लेकिन इस प्रक्रिया को लेकर जितना स्पष्टता संगठनात्मक स्तर पर दिखाई दे रही है, उतनी ही असमंजस की स्थिति इस बात को लेकर है कि अगला अध्यक्ष कौन होगा। राजनीतिक गलियारों में चर्चा तेज़ है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस पद पर एक ऐसे व्यक्ति को देखना चाहता है, जो संघ की विचारधारा और सांगठनिक दिशा को मजबूती से आगे बढ़ा सके। संघ का यह रुख इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि भाजपा का यह पद केवल एक नाम मात्र की अध्यक्षता नहीं है, बल्कि यह उस तंत्र का केंद्र होता है जो पार्टी को राज्यों से लेकर केंद्र तक संगठित करता है। वहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शैली हमेशा से अलग रही है। वे अपने नज़दीकी और पूरी तरह से वफादार व्यक्तियों को उच्च पदों पर नियुक्त करना पसंद करते हैं, ताकि प्रशासनिक और संगठनात्मक कामकाज में कोई मतभेद या बाधा न आए। जेपी नड्डा भी प्रधानमंत्री के विश्वस्तों में गिने जाते हैं और इस पद पर उनका दो बार कार्यकाल रहा है, जो इसी रणनीति का हिस्सा माना गया।
अब जब नड्डा का कार्यकाल समाप्त हो चुका है और लोकसभा चुनावों के बाद भी यह पद रिक्त बना हुआ है, तो सवाल उठता है कि क्या भाजपा एक बार फिर किसी मोदी वफादार को इस कुर्सी पर बिठाएगी, या संघ का प्रभाव इस बार हावी रहेगा? इस पद की ताकत को देखते हुए संघ इसे खोना नहीं चाहता, वहीं मोदी सरकार इसे अपनी रणनीतिक योजना के मुताबिक नियंत्रित रखना चाहती है।
इस द्वंद्व की परछाई अब भाजपा की आंतरिक बैठकों और संघ की आगामी योजना बैठकों पर भी दिख रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का 4 जुलाई से शुरू हो रहा तीन दिवसीय प्रांतीय प्रचारक सम्मेलन दिल्ली में होगा, जहां संघ प्रमुख मोहन भागवत, सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले और सभी सह-सरकार्यवाह मौजूद रहेंगे। सूत्रों की मानें तो इस बैठक में भाजपा नेतृत्व और संघ के बीच इस मुद्दे पर गंभीर विमर्श होगा, ताकि कोई ऐसा समाधान निकाला जा सके जो संगठनात्मक संतुलन बनाए रखे।
राज्य स्तर पर भाजपा की इकाइयों में नई नियुक्तियों से साफ है कि पार्टी संगठन के ढांचे को मजबूत करने पर जोर दे रही है। हिमाचल प्रदेश में राजीव बिंदल को पुनः प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया गया है, महाराष्ट्र में रविंद्र चव्हाण को, उत्तराखंड में महेंद्र भट्ट को और आंध्र प्रदेश में पी वी एन माधव को यह जिम्मेदारी दी गई है। ये सभी नियुक्तियां इस बात की ओर इशारा करती हैं कि पार्टी अब नेतृत्व के नए सिरे से पुनर्गठन की ओर बढ़ रही है।
यह भी ध्यान देने वाली बात है कि पार्टी के अंदर संगठनात्मक चुनावों की यह प्रक्रिया जितनी संवैधानिक आवश्यकता है, उतनी ही यह राजनीतिक संकेत भी देती है कि भाजपा अब चुनावी मोड से संगठनात्मक स्थिरता की ओर बढ़ना चाहती है। यह एक आवश्यक कदम है क्योंकि आगामी वर्षों में देश के कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, जिनमें भाजपा को मजबूत सांगठनिक नेतृत्व की आवश्यकता होगी।
भाजपा का यह संक्रमण काल न केवल नए अध्यक्ष की नियुक्ति का विषय है, बल्कि यह इस बात का संकेतक भी है कि क्या पार्टी अपनी जड़ों से जुड़ी संस्था—संघ—के प्रभाव में रहेगी या प्रधानमंत्री के निर्णायक नेतृत्व की छाया में। यह संघर्ष केवल पद की नियुक्ति भर नहीं, बल्कि भाजपा की आगामी कार्यप्रणाली, विचारधारा और नेतृत्व की दिशा तय करेगा।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यदि भाजपा किसी संघ पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त करती है तो यह पार्टी के भीतर अनुशासन और सांगठनिक एकरूपता को बढ़ावा देगा, जबकि अगर मोदी के करीबी को यह जिम्मेदारी दी जाती है तो यह उनके नेतृत्व में निर्णायकता और केंद्रीकरण की पुष्टि करेगा। दोनों ही विकल्प भाजपा की रणनीति में गंभीर असर डाल सकते हैं।
अब जब पार्टी ने आवश्यक 50% से अधिक राज्य इकाइयों में अध्यक्षों का चुनाव पूरा कर लिया है, राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव केवल औपचारिकता भर रह गया है। लेकिन यह औपचारिकता भाजपा के भीतर शक्ति संतुलन, नेतृत्व की प्राथमिकताएं और विचारधारा की दिशा तय करने वाली होगी।
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