वन भूमि पर सेब के बागीचे और कटाई का संकट: शिमला में हाईकोर्ट के आदेश से गरमाया राजनीतिक और आजीविका का मुद्दा

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हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला के कोटखाई क्षेत्र में इस समय एक गहरी सामाजिक, पर्यावरणीय और राजनीतिक बहस चल रही है। विवाद का केंद्र है—2800 बीघा वन भूमि, जिस पर वर्षों से कुछ परिवारों ने कथित तौर पर कब्जा कर सेब और अन्य फलदार वृक्षों के बागीचे उगा दिए। अब जब हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के सख्त निर्देशों पर वन विभाग द्वारा अवैध कब्जों को हटाने की कार्रवाई की जा रही है, तो राज्य की सुखविंदर सिंह सुक्खू सरकार बैकफुट पर नजर आ रही है। यह मुद्दा एक स्थानीय अतिक्रमण से बढ़कर राजनीतिक, आर्थिक और मानवीय चिंताओं का केंद्र बन गया है, जहाँ विकास, वन अधिकार और आजीविका की सीमाएं टकरा रही हैं।

इस पूरी कार्रवाई की जड़ें 2014 में लिखी गई एक पत्र में हैं, जिसे किसी जागरूक नागरिक ने हिमाचल हाईकोर्ट को भेजा था। उस पत्र पर स्वतः संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट ने वर्षों की सुनवाई के बाद अब वन विभाग को आदेश दिया है कि सभी अवैध अतिक्रमण हटाए जाएं, भले ही उन पर फलदार पेड़ क्यों न लगे हों। कोर्ट के आदेश स्पष्ट हैं कि जंगल की जमीन पर कोई भी निर्माण, खेती या व्यवसायिक उपयोग गैरकानूनी है, और उसे हटाना जरूरी है।

वन विभाग ने इस आदेश का पालन करते हुए बीते कुछ दिनों में कोटखाई के चैथला गांव, रोहड़ू और कोटगढ़ वन मंडल में कार्रवाई तेज कर दी है। अब तक 3,659 सेब और अन्य फलदार पेड़ों की कटाई की जा चुकी है, जिनमें केवल कोटखाई जुब्बड़ के चैथला क्षेत्र से ही 2,456 पेड़ शामिल हैं। यह आंकड़ा 15 जुलाई 2025 तक का है और कार्रवाई अब भी जारी है। प्रशासन का दावा है कि यह कदम केवल न्यायालय की अवमानना से बचने और राज्य के वनों की रक्षा के लिए लिया गया है। लेकिन इस कदम से इलाके के बागवानों और स्थानीय लोगों में गहरा रोष फैल गया है।

स्थानीय लोगों का कहना है कि ये पेड़ केवल आर्थिक साधन नहीं थे, बल्कि उनकी आजीविका और अस्तित्व से जुड़ा मसला हैं। कई परिवारों ने वर्षों से इस भूमि पर मेहनत करके सेब के बागीचे विकसित किए थे, और अब जब पेड़ फल देने लगे हैं, उन्हें अचानक उखाड़ फेंका जा रहा है। इनमें से कई परिवारों का कहना है कि उन्होंने प्रशासन को अपनी स्थिति समझाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें सुना नहीं गया।

मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू, जो हाल ही में दिल्ली से लौटे हैं, ने इस मुद्दे पर चिंता जताई है और स्पष्ट किया है कि उनकी सरकार फलदार पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के पक्ष में नहीं है। उन्होंने कहा है कि राज्य सरकार अब इस मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट का रुख करेगी और जल्द ही बागवानी मंत्री जगत सिंह नेगी के साथ विस्तृत समीक्षा बैठक कर आगे की रणनीति तैयार की जाएगी। सुक्खू ने यह भी आरोप लगाया कि हिमाचल हाईकोर्ट इस मामले में राज्य सरकार का पक्ष सुनने के लिए तैयार नहीं है, जो कि राज्य की संवैधानिक स्थिति और प्रशासनिक स्वायत्तता पर गंभीर सवाल खड़ा करता है।

सरकार का कहना है कि वे किसी भी कीमत पर वनों के अवैध अतिक्रमण को बढ़ावा नहीं देंगे, लेकिन यह भी जरूरी है कि ऐसे मामलों में मानवीय दृष्टिकोण अपनाया जाए। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि जिन किसानों ने वर्षों तक इन भूमि पर मेहनत की है, उनके लिए वैकल्पिक व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि उनकी आजीविका प्रभावित न हो। साथ ही, पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से पर्यावरणीय नुकसान भी एक अहम मुद्दा बन गया है, जिस पर राज्य सरकार और न्यायपालिका दोनों को ध्यान देना होगा।

इस मुद्दे ने न केवल प्रशासन और न्यायपालिका को आमने-सामने लाकर खड़ा कर दिया है, बल्कि हिमाचल की राजनीतिक फिजा में भी हलचल मचा दी है। विपक्षी दलों ने सरकार पर निशाना साधते हुए आरोप लगाया है कि वह न्यायालय के आदेशों का ठीक से प्रतिनिधित्व नहीं कर पाई और आम लोगों की भावनाओं की अनदेखी की है। वहीं, कांग्रेस सरकार खुद को दोहरे दबाव में पाती है—एक तरफ अदालत की सख्ती और दूसरी ओर जनता का आक्रोश।

इस पूरे प्रकरण ने हिमाचल प्रदेश में भूमि अधिकार, वन नीति और विकास बनाम संरक्षण की बहस को एक बार फिर जीवंत कर दिया है। सवाल उठता है कि क्या हर अतिक्रमण केवल कानून का उल्लंघन होता है या उसके पीछे कोई मानवीय हकीकत भी होती है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता? यह मामला आने वाले दिनों में न केवल हिमाचल की राजनीति बल्कि देशभर की भूमि नीति और वन संरक्षण दृष्टिकोण के लिए भी एक नजीर बन सकता है।

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